प्रज्ञा गान
सुर वाणी की सुता दुलारी, अपनी भाषा हिंदी प्यारी।
प्रज्ञा के आँगन में उपजा, युग–युग तक गूँजे यह नारा।
जय हिंदी, जय हिंद हमारा।।
हिंदी की बगिया ने हमको मीरा, सूर, कबीर, दिए हैं।
कन्हा का बालापन गाते जनकवि मियाँ नज़ीर दिए हैं।
सरहपाद, विद्यापति, बोधा, ठाकुर, तुलसी और बिहारी,
जगनिक, चंद, जायसी, दाउद, भूषण से रणधीर दिए हैं।
बचन, नीरज, सोम सुगंधित, रत्नाकर का काव्य किनारा।
जय हिंदी जय हिंद हमारा।।
तेरी खुशबू से महके हैं अलंकार रस छंद निराले।
तूने ही अपनी गोदी में गीतों के मृदु आखर पाले।
तुझसे महिमामंडित होकर, पुष्प, कली, नैना कजरारे
चाँद, सितारे, भ्रमर, तितलियाँ, घूम रहे होकर मतवाले।
कन्हा की बंसी का स्वर ले, गली–गली गूँजे इकतारा।
जय हिंदी, जय हिंद हमारा।।
नाथ, सिद्ध हिमगिरि से निकली अविरल गंगा–सी यह बानी।
आदि काल के राजगृहों से भक्ति रीति की आदि भवानी।
भारतेंदु ने महावीर की छाया, प्रगति , प्रयोग पंथ पर,
नव–जागृति का बिगुल थमाकर लिखी गद्य की अमर कहानी।
भारत की अनुपम छवि धारे बहे काव्य की अविरल धारा।
जय हिंदी जय हिंद हमारा।।
माँ के शुभ आँचल के जैसा नेह, त्याग, बलिदान है प्रज्ञा।
कर्मभूमि साहित्य जगत में हिंदी का सम्मान है प्रज्ञा।
शब्द–शब्द, आखर–आखर में गद्य, पद्य, रस, छंद हृदय ले,
नव शुचि अनुसंधान ज्ञान का, शुभ वाणी वरदान है प्रज्ञा।
कनक और गर्वित के उर का अति प्रवीण उज्जवलतम तारा।
जय हिंदी, जय हिंद हमारा।।
— ‘गर्वित’ ‘कनक’ ‘प्रवीण’