प्रज्ञा हिंदी सेवार्थ संस्थान ट्रस्ट द्वारा आयोजित चतुर्थ सृजन श्री अलंकरण -2022 के प्रथम चरण के सभी दस महिनों में प्राप्त हुई प्रविष्टियों के परिणाम

परिणाम

जय हिंद…… …….. जय हिंदी

प्रज्ञा हिंदी सेवार्थ संस्थान ट्रस्ट द्वारा आयोजित चतुर्थ सृजन श्री अलंकरण -2022 के प्रथम चरण के सभी दस महिनों में प्राप्त हुई प्रविष्टियों के परिणाम👇🏿

नोट:- ग्यारहवें माह (अप्रैल 2022) में केवल वे ही लोग प्रतिभागिता कर सकेंगे जिनके नाम निम्नलिखित सूची में अंकित हैं। 

प्रथम माह (जून 2021)
विषय :- दीप

कोड – क (प्रथम स्थान)

तुम नहीं हो, जानती हूँ
पर स्वयं को छल रही हूँ
मैं तुम्हारे साथ होकर
भी अकेले चल रही हूँ ..

प्राण में तुमको बसाकर
वेदना में हर्ष धारे
मैं लुटाती जा रही निज
स्वप्न के सुन्दर सितारे
जल रही इक वर्तिका हूँ
दीप की त्यागी हुई मैं
और दुर्गम मार्ग पर हूँ
मात्र सुधियों के सहारे

नियति की प्रतिकूलता में
सम-सहज अनुकूल होकर
समय के निष्ठुर नयन को
दंश बनकर खल रही हूँ ..

मारती शर शूल के, अपने
पगों पर, खिलखिलाती
हृदय के स्पन्दनों पर
दौड़ चौखट देख आती
मैं निशा रवहीन क्रंदन
को तिमिर की ओट देकर
आह अपनी मौन करती
वेदना पर मुस्कुराती

किसी तीख़ी टीस को
अधरों धरे,जग से छिपाये
आँसुओं में डूब, शीतल
आग में मैं जल रही हूँ ..

मैं तुम्हारे हाथ की, छोड़ी हुई
मछली तड़पती
त्याग सागर को, तुम्हारी
प्यास के मरु में झुलसती
मैं कि जैसे दामिनी
नभ में सघन घन बीच उभरे
मैं तुम्हारे सुधि-जलधि में
डूबती फिर-फिर उभरती

आ रहे जलमय जलद की
हवि,विगत की ज्वाल को दे
धूप की जलती हुई सी
छाँव में मैं पल रही हूँ ..

मैं तुम्हें मन में बिठाये
श्वाँस तुमको पूजती है
आस झूठी आस में ही
मुग्ध होकर झूमती है
किंतु सहसा भान हो
आता विवशता-रिक्तता का
जब दृगों की कोर
खारे मोतियों को चूमती हैं

मैं तुम्हारी विस्मृति के
पीतवर्णी पतझरों में
कामनाओं के कुसुम को
क्रूरता से दल रही हूँ ..

नाम – आराधना शुक्ला
पता – 125/84 ‘एल’ ब्लॉक
गोविन्द नगर कानपुर,
(उत्तर प्रदेश)
पिन – 208006
मो. 7398261421

कोड – छ (द्वितीय स्थान)

आस का दीप प्रतिपल जलाते रहें,
और विश्वास से पग बढ़ाते रहें।

दूर करके दुखों की निराशा सभी।
सद्य मन की मिटाकर हताशा सभी।
आत्मविश्वास जीवित रहे जो सदा-
पल्लवित हो मनुज सुप्त आशा सभी।
धैर्य से ज़िन्दगी को सजाते रहें।
और विश्वास से —————-

जो कभी मन घिरे घोर अवसाद से।
पीर की बात हो मूक संवाद से।
योजना मानकर इसको भगवान की-
साधना नित करें श्रेष्ठ मरजाद से।
दर्द में भी सदा मुस्कुराते रहें।
और विश्वास से————-

हर परीक्षा यहाँ एक वरदान है।
प्रश्न होते कठिन पर समाधान है।
व्यर्थ की उलझनों में न उलझा करें-
वेद,क़ुरआन में भी यही ज्ञान है।
पुष्प निष्ठा हृदय में खिलाते रहें।
और विश्वास से —————-

सत्य होता नहीं है पराजित यहाँ।
और होता जगत में सुवासित यहाँ।
झूठ टिकता नहीं उम्र भर के लिए-
सृष्टि को ईश करते सुशासित यहाँ।
श्रेष्ठतम कर्म अपना निभाते रहें।
और विश्वास से —————–

कृष्ण कुमार श्रीवास्तव
“कृष्णा”
हाटा,कुशीनगर, उत्तर प्रदेश
मो. 9453856390

कोड – ज (तृतीय स्थान)

जल अखंडित दीप मेरे…

पथ सघन है रिक्त उर है
उच्छ्वासों का कहर रे!
तम हृदय को घेर बैठा
सिक्त दृग का ये शहर रे!
काँपती वर्ती ठहर कर,जल अकम्पित दीप मेरे…….

सांध्य के अंचल तले में!
घुल रहीं हैं सब व्यथाएँ!
चिर करुण मरुथल हृदय में
जूझती नित वर्तिकायें।
ओट में आ स्वांस भर ले जल प्रकम्पित दीप मेरे…..

पथ न भटके ढोर निशि में
न विहग का पथ हो विस्मय।
नभ के तारे छुप रहे हैं
बुझ न जाना तू भी असमय।
गल रही है वर्ती धीमे, जल दिगंतित दीप मेरे…..

इन दृगों के स्वप्न सारे।
टोह रही है साँझ विरहन!
रात आने को खड़ी है।
तीव्र स्वांसों का स्पंदन!
मीड़ काली रात को तू जल अचंभित दीप मेरे……

गुंजन अग्रवाल “अनहद”
260, ग्राउंड फ्लोर, अशोका एन्क्लेव मैन
सेक्टर 35, फरीदाबाद
(हरियाणा) 121003
मो. 9911770367

कोड – श (तृतीय स्थान)

प्रश्न युग का, दीप से था, जल रहे हो, क्यों अकम्पित,
गर्व से , बोला ये दीपक , द्वार की , सौगन्ध मुझको !

अल्पना को अंग करके
कल्पना को संग करके
स्वप्न में सौ रंग भरके
प्रेम में पैठी हुई है ,
आस का आकाश लेकर
भुवन भर विश्वास लेकर
नौ जनम की प्यास लेकर
देह में बैठी हुई है ,

देहरी को , मैं अकेला , छोड़ दूँ , कैसे कहो तुम ,
बावरी के कसमसाते , प्यार की सौगंध मुझको !

हाथ में तलवार लेकर
बेधती ललकार लेकर
आँख में अंगार लेकर
तमतमाया तम खड़ा है ,
सत्य का पथ छोड़ करके
पवन से गठजोड़ करके
किरण का रथ मोड़ करके
लीलने पर ही अड़ा है ,

प्राण रहते जीतने दूँ , तमस को कैसे भला मैं ,
सूर्य के सौंपे हुए , संस्कार की सौगन्ध मुझको !

हौसले की मिट्टियों से
स्वाभिमानी गिट्टियों से
सैनिकों की चिट्ठियों से
ब्रह्म ने मुझको रचा है ,
जगत के देवालयों में
या नृपों के आलयों में
न्याय के मंत्रालयों में
तेज बस मुझसे बचा है ,

सृष्टि सारी एकटक बस , मुझको ही तो देखती है ,
सृष्टि की हर दृष्टि के , सिंगार की सौगन्ध मुझको !

आलोकेश्वर चबडाल
1119,चिपलुनकर कुंज
गेल गाँव,दिबियापुर,औरैया
उत्तर प्रदेश – 206244
मो. 9720166139

 

द्वितीय माह (जुलाई 2021)
विषय – अँधेरा

कोड – घ प्रथम स्थान

दुख हृदय के द्वार पर फिर आ खड़ा है मुस्कुराते।
हैं निशा के प्रहर बीते,उलझनों के गीत गाते।

मैं निशा की स्वामिनी थी,संग था मेरे अंधेरा।
मुक्त था अनुभूतियों से,शांत चित अवधूत मेरा।
खोजते किसको न जाने दीप लेकर प्रेम आया।
मन अनिश्चित व्यग्र था जब नाम ले उसने बुलाया।
आओ हम इस मन विहग को प्रीति नभ में हैं उड़ाते।

जब मिला नीलाभ नभ,किरणें सुनहरी रंग भर।
मन सुभाषित श्लोक सा, उन्मुक्तता के छंद पर।
भावनाओं ने प्रथम उत्सव मनाया रीति से।
हो गया मन मीत का, सम्बद्ध परिमल प्रीति से।
कौमुदी के संग कितने कल्पना के घर बनाते।

सांध्य वंदन आरती में वेदना के स्वर भरे थे।
पतझड़ी थी किन्तु कुछ पत्ते अभी तक कुछ हरे थे।
मन विकल हो ढूँढता है सांत्वना के बोल प्यारे,
क्षीण होता आस दीपक,अब जले किसके सहारे।
काश निष्ठुर प्रेम के पथ पर न स्वप्नों को सजाते।

गीता गुप्ता ‘मन’

नाम- गीता गुप्ता ‘मन’
पता–मनीष कुमार
सी पी सी
न्यू हैदराबाद पोस्ट ऑफिस भवन
लखनऊ
पिन-226007,उत्तरप्रदेश
मो. 9453993776

कोड – छ द्वितीय स्थान

सुकवि रे! गीत लिख ऐसा ,कि उर उत्साह भर जाये ।
सुने जो स्वर मधुर तेरा, दुखों को दूर कर जाये।

घिरा अवसाद से मानव ,
कलम से तार तू इसको।
दिया जो गुण विधाता ने ,
बना पतवार तू उसको।
लिखे जा शब्द मरहम से,
जगत की पीर हर जाये ।
सुकवि रे! गीत लिख ऐसा,कि उर उत्साह भर जाये ।

किसी की पीर हरने से ,
अनूठा गीत बन जाये ।
जरा सी प्रीति करने से,
कि रूठा मीत बन जाये ।
बहे उल्लास की नदिया,
जहाँ से तू गुजर जाये ।
सुकवि रे! गीत लिख ऐसा,कि उर उत्साह भर जाये ।

कलम है रोशनी जिसकी,
मिटा देती अँधेरा है।
लिखे जो मर्म अंतस का,
वही लाता सवेरा है।
तराशे शब्द जब तूने ,
उजाले तब नजर आये।
सुकवि रे! गीत लिख ऐसा ,कि उर उत्साह भर जाये ।

बना कुरुक्षेत्र जीवन है ,
बिछे हैं शूल पग-पग में।
लड़ा है लेखनी से जो ,
अमर वो नाम है जग में।
सजा तू फूल गीतों के,
महक मन में उतर जाये ।
सुकवि रे! गीत लिख ऐसा ,कि उर उत्साह भर जाये।

सुनाकर कृष्ण ने गीता ,
महाभारत जिताया था।
हताशा का , शमन करके ,
अलौकिक पथ दिखाया था।
समझ तू सार गीता का,
मनुज जीवन निखर जाये।
सुकवि रे! गीत लिख ऐसा ,कि उर उत्साह भर जाये।
***

कैलाश चंद्र जोशी
साहित्यिक नाम – कैलाश ” पर्वत”
पता -१०८७ , भगत सिंह कुञ्ज गेल गांव
दिबियापुर , औरैया , उत्तर प्रदेश।
पिन -206244
मो. 9720007396

 

कोड – ख तृतीय स्थान

आजकल कुछ व्यस्तताएँ आ गई हैं बिन बुलाए।
रोशनी का दर्द अँधियारा गले कैसे लगाए?

सर्द हैं दिन गर्म रातें गर्म चलती हैं हवाएँ।
मर्ज़ बढ़ता जा रहा है बेअसर होतीं दवाएँ।
अनय-अत्याचार फिरते घूमते हैं सिर उठाए।
रोशनी का दर्द अँधियारा गले कैसे लगाए?

ढोल बजते हैं नगाड़े किस क़दर सोया ज़माना।
लग रहा है बहुत ऊँचे ख़्वाब में खोया ज़माना।
कौन है जो हृदय-द्वारे पर अलख आकर जगाए।
रोशनी का दर्द अँधियारा गले कैसे लगाए?

शान्त रहने की गुज़ारिश का नतीजा सामने है।
लोकमण्डल की सिफ़ारिश का नतीजा सामने है।
आग अंदर में लगी है जो नहीं बुझती बुझाए।
रोशनी का दर्द अँधियारा गले कैसे लगाए?

प्रतापनारायण मिश्र
प्रज्ञापुरम् , लखपेड़ाबाग निकट-रामसेवक यादव स्मारक इण्टर कॉलेज, बाराबंकी (उ०प्र०)
मो. 94502 82472

 

तृतीय माह (अगस्त 2021)
विषय – स्वप्न

कोड – औ प्रथम स्थान

आओ हम तुम बातें कर लें
झिलमिल करते तारों से।
धवल चाँदनी की किरणों में
उठते मन उदगारों से ।

संग तुम्हारे चलते सजना
उमर हमारी बीत गई
कर्तव्यों की बलि-वेदी पर
सारी खुशियाँ भूल गई।
अब तो पूछो स्वप्न छिपे वे
इन नैना कजरारों से।
धवल चाँदनी की किरणों में ,
उठते मन उदगारों से।

दृग की चितवन बोले तुमसे
कंगन हाथों के सारे।
सिमट रही है हिमगिरि धारा
बिखरे हैं ख्वाब हमारे ।
बूझो दिल का हाल हमारी,
पायल की झनकारों से।
धवल चाँदनी की किरणों में
उठते मन उदगारों से ।

स्वप्न सुनहरे सजे हैं हमदम
धरा बूँद की प्यासी है ।
भंवरे से न कली मिली है
छाई चमन उदासी है
आस लगाए रहती हरदम
सावन की बौछारों से
धवल चाँदनी की किरणों में
उठते मन उदगारों से ।

गगन प्रेम में जब झुकता है ,
कोर-कोर अवनि का सजे।
अरमानों की डाली खिलतीं,
लहरों में संगीत बजे।
अब तो सुर से साज मिलाओ,
उदधि के इन किनारों से।

आओ हम तुम बातें कर लें,
झिलमिल करते तारों से।
धवल चाँदनी की किरणों में,
उठते मन उदगारों से।।

वंदना चौहान
C/o जितेंद्र सिकरवार
452/453 ,अलबतिया ,शाहगंज आगरा, उत्तर प्रदेश, पिन कोड-282010
मो. 9410001188

कोड – ऐ द्वतीय स्थान

आपके नाम का जादू ये देखिए, लहर भी लिखते ही चूमने आ गई।
अक्षरों की बनावट को कसके पकड़,रेत भी अंक में भर के सहला गई।

प्रेम और त्याग की हैं कहानी कई,
इस सफ़र में हमारा भी संजोग था,
हाथों में आपके नाम की मेंहदी,
और लिखाया अमर ये प्रणय योग था।
मार्ग में विघ्न बाधा रहीं मीरा के,
बाँध उनको मगर पाया संसार कब।
उँगलियाँ तो उठी जानकी पर भी थी,
तीन लोकों में है नित्य सत्कार अब,

ताल कदमों की मिलने लगी प्रेम में,कद मिला आपका मेरी लघुता गई।
अक्षरों की बनावट को कसके पकड़,रेत भी अंक में भर के सहला गई।

गेह के द्वार पर नित्य दीपक मेरा,
छाप दीवार पर हो मेरे हाथ की,
मेरी पायल पुकारे पिया प्यार से,
भाँवरों में कसम खा लें हम साथ की।
शुभ कलश द्वार पर मेरे पग से गिरे,
घर मेें शुभता रहे लाभ गंगा बहे।
मेरी संपत्ति बस प्रेम है आपका,
पूर्णता पाई है तो कमी क्यों रहे।

मन के मरुथल में चाहत की सरिता बही,भाव की मंजरी उर को महका गई।
अक्षरों की बनावट को कसके पकड़,रेत भी अंक में भर के सहला गई।

आपकी ऊँगलियों में जो खाली जगह,
उँगलियाँ मेरी उनमें फँसा दीजिए।
प्यार के आगमन से मिटे वेदना,
इस विकल मन को पल में हँसा दीजिए।
आप अधरों पर ऐसे सजा लो मुझे,
कृष्ण जी ने रखी जैसे थी बाँसुरी।
प्राण छोड़ेगी प्रिय! राधिका ये तभी,
आपके प्रेम से भर ले जब अंजुरी।

एक आवाज़ कानों में घोले शहद,जब पुकारा “सुनो” मैं तो शरमा गई।
अक्षरों की बनावट को कसके पकड़,रेत भी अंक में भर के सहला गई।

एक बस आपसे मेरा अनुरोध है,
“स्वप्न” में भी कभी दूरी करना नहीं,
साथ छूटा अगर अंत निश्चित मेरा,
फिर मुझे प्रेम सागर से तरना नहीं।
भाल के आपका मैं ही चंदन बनूँ ,
और इठलाऊँ इस दिव्य शृंगार से।
आपकी सहचरी मैं हूँ जन्मों जनम,
सूत्र बाँधा निभाऊँगी सत्कार से।

देह पर उम्र की धूप चढ़ने लगी,साँझ की वेदी तक और गहरा गई।
अक्षरों की बनावट को कसके पकड़,रेत भी अंक में भर के सहला गई।

आशा नशीने
मकान नम्बर -4, गली नम्बर–1,
सृष्टि काॅलोनी, कमला काॅलेज रोड ,कौरीन भाटा, राजनांदगाँव (छत्तीसगढ़), पिन कोड–491441
मो. 7987108288

 

कोड – इ तृतीय स्थान

मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।
व्यर्थ दंभ की चादर को तू मत जीवन में तान।।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।
बचपन बीते आए जवानी, लिख जाती है नई कहानी
मग्न प्रेयसी की बांहों में, लगती है हर रात सुहानी
लगता है पल भर को होता, हर दुःख का अवसान।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।
आंखों में हैं स्वप्न सजीले, रवि किरणों से पीले-पीले
किंतु लक्ष्य है दूर, पंथ- एकाकी लगते हैं पथरीले
राहों के पत्थर क्यों रोये, छालों से लो जान।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।
जीवन है एक स्वप्न सलोना, मानव ईश्वर रचित खिलौना
चल जाए तो सुख देता है, रुक जाए तो रोना-धोना
तन से भारी साँस बताते इसीलिए गुणवान।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।
मिथ्या सुख और वैभव जग का, स्वप्न टूट जाता है सबका
यौवन का आनंद चरम और-मोह टूट जाता है सबका
जरा वरण करती यौवन का, मृत्यु करे संधान।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।
माया के वश में जो होता, अंत काल प्राणी वो रोता
स्वप्न टूटने से पहले क्यों, मन का, मनका नहीं पिरोता
छोड़ प्रपंची स्वप्न जगत के, कर ले प्रभु का ध्यान।
मत कर रे अभिमान, जीवन स्वप्न समान।।

सुधीर कुमार मिश्र
द्वारा पंकज तोमर
नाहिली मार्ग, नई बस्ती, घिरोर,
जनपद-मैनपुरी(up),पिनकोड-205121
मो. 7906958114

 

कोड – ऊ तृतीय स्थान

नींद उड़ा दे जो आँखों की, मति को भी उकसाता है ।
ठोस इरादा मन में जो हो, ‘स्वप्न’ वही कहलाता है ।।
सच्चा-साधक सत्कर्मो से, उसको भी पा जाता है ।
ठोस इरादा मन में जो हो, ‘स्वप्न’ वही कहलाता है ।।

उच्चाकांक्षा पाल रखे जो, धुन में कब सो पाता है ?
होता आराम हराम सदा, कोलाहल मच जाता है ।।
सतत चुनौती स्वीकारे जो, कर्म महत कर जाता है ।
ठोस इरादा मन में जो हो, ‘स्वप्न’ वही कहलाता है ।।

जब भी देखो ऊँचा देखो, सपना बडा़ सुहाता है ।
पूर्ण करे जी जान लगा जो, कर्मठ वह कहलाता है ।।
पावक-पथ को पार करे जो, नव इतिहास बनाता है ।
ठोस इरादा मन में जो हो, ‘स्वप्न’ वही कहलाता है ।।

दम पर अपने नभ को नापे, पंख पसारे जाता है ।
भरे बुलंदी जो नित निज में, शुचि-संदेश जगाता है ।।
करता सपना जो वह पूरा, जग उसको दुहराता है ।
ठोस इरादा मन में जो हो, ‘स्वप्न’ वही कहलाता है ।।

भरत नायक “बाबूजी”
लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग.)
मो. 9340623421

चतुर्थ माह (सितंबर,2021)
विषय: आंखें

 

कोड – 1 प्रथम

आंख के आंसू छिपाकर हैं खुशी के गीत गाए।
हम धरा थे तुम गगन थे चाह कर भी मिल न पाए।

क्या पता किस्मत ने क्यों फिर
आज मेरा साथ छोड़ा।
थी कहानी जो मिलन की
वेबजह अलगाव जोड़ा।
चार दिन की जिंदगी ने सैकड़ो अभिनय कराए।
हम धरा थे तुम गगन थे चाह कर भी मिल न पाए।

हाथ की रेखा हमारी,
कह रही है दूर होना।
भाग्य में अपने लिखा है,
जिंदगी भर सिर्फ रोना।
जिंदगी की ये कहानी विधि के ऊपर छोड़ आए।
हम धरा थे तुम गगन थे चाह कर भी मिल न पाए।

कुछ दिनों से साथ अपने,
अपशकुन ही घट रहे हैं।
हैं फड़कते अंग बाएं,
दूरियों में बट रहे हैं।
भूल जाने ही पडे़गे साथ में जो पल बिताए।
हम धरा थे तुम गगन थे चाह कर भी मिल न पाए।

कृतार्थ पाठक
शहाबाद हरदोई (उत्तर प्रदेश)
पिन कोड-241124
मो. 9170720096

 

कोड – 5 द्वितीय

नीली आँखों के जादू ने पागल किया,
डूब कर इनमें अब तो मैं मर जाऊँँगी।
इनकी गहराई में अब डुबो लो मुझे,
बावली हूँ तुम्हारी किधर जाऊंगी।।

दृग ये लोचन विलोचन नयन नेत्र चख,
है ये पर्याय चक्षु मदिर दृष्टि के।
दीदा अंबक चमकते है जल से भरे,
जिससे दर्शन करें सब मधुर सृष्टि के।
इनसे घायल हुयी मैं न उबरी कभी,
इनमें खोकर मैं खुद ही सँवर जाऊँगी।।

नीली आँखों के जादू ने पागल किया,
डूबकर इनमें अब तो मैं मर जाऊँगी।।

नैन ठगते है हिय की न भाषा सुनें,
दृग तरंगों से उतरे और मन की गुनें।
जागते जागते कितनी रातें कटीं,
प्रीत इनसे जुड़ी और घटना घटीं।
बनके राधा कभी बनके मीरा कभी,
मोहना के मैं मन में उतर जाऊँगी।।

नीली आँखों के जादू ने पागल किया।
डूबकर इनमें अब तो मैं मर जाऊँँगी।।

नैन से नैन जब भी मिले हैंं कभी,
प्रेम सरिता में ही डूब जाती हूँ मैं।
दीन दुनियां की रहती न मुझको खबर,
खुद मेंं खुद को ही अनजान पाती हूँ मैं।
तेरी आँखें है या मैकदा है कोई,
इनमें डूबी तो फिर मैं बिखर जाऊँगी।
नीली आँखों के जादू ने पागल किया,
डूबकर इनमें अब तो मैं मर जाऊँगी।।

सरिता सिंघई “कोहिनूर”
बालाघाट (म.प्र)
मो. 9425822665

 

कोड – 7 तृतीय

नयन निराले
पल में मरुथल के झरने से
पल में मधु के प्याले
नयन निराले

कभी लगे इन दो नैनों में स्रष्टि सिमट है आई
मेरे सारे सपनों की सीमा इनमें है समाई
बंद नयन तो लगे अंधेरा खुलें खिलें उजियाले
नयन निराले

इनमें छुपा निमंत्रण इन में चंचलता की तानें
अपेक्षाओं की नदिया की म्रदु मोहक मुस्कानें
जब चाहें घायल कर डालें
फेंक चितवनी भाले
नयन निराले

नैनों ही नैनो में रचना उपन्यास ये जानें
सारे बंधन तोड़ें जब ये हो जायें दीवानें
दुख सुख का यह बिंब सदा ही रखते खुद में संभाले
नयन निराले।

सुशील सरित
36, अयोध्या कुँज-ए, आगरा 282001
मो. 94110 85 159

 

पंचम माह अक्टूवर – 2021
विषय: मौन

कोड – @ – प्रथम

मौन हुई थी रसना पर ;नैनों ने ,सब सच बोल दिया ।
लाँघ गया सीमाएँ काजल, भेद मिलन का खोल दिया ।

साँस मुखर थी, नैनों से भी ,छककर मन की बात हुई ।
प्रेम भरे मीठे तानों की, मद्धिम-सी बरसात हुई ।
रोम -रोम है पगा प्रेम में, अनुभव वो अनमोल दिया ।
लाँघ गया सीमाएँ काजल, भेद मिलन का खोल दिया ।

बातूनी घुँघरू पायल के, नटखट बात कहाँ मानें।
कंगन भी हैं जिद्दी; बैरी, शांत नहीं रहना जानें ।
रक्तिम मुख पर बिंदी ने भी ,था अपना रंग घोल दिया।
लाँघ गया सीमाएँ काजल ,भेद मिलन का खोल दिया ।

झुकी -झुकी अपराधी -अँखिया, गलती अपनी मान गईं ।
कोतवाल -सी सखियाँ सारी ,राज मिलन का जान गईं ।
रचा खूब षड्यंत्र सभी ने पीट गाँव में ढोल दिया ।
लाँघ गया सीमाएँ काजल भेद मिलन का खोल दिया ।

सुनंदा झा ‘सीप’
Bimal kumar jha
Type -Vll
Harbour Estate,Bharathi Nagar
Tuticorin(TN)
PIN -628004
मो. 8128724194

 

कोड – ₹ – द्वितीय

कच्चे धागे सम्बन्धों के, सच कहने से टूट रहें हैं।
झूठ नही कह सकते हम तो, इसीलिए बस मौन हो गए।

रिश्तों में विश्वास बना हो,
आम आदमी ख़ास बना हो।
जीवन में संकट के क्षण में,
इक – दूजे की आस बना हो।

परिपाटी जीवित रखने में, हम सबके ही औन हो गए।
झूठ नही कह सकते हम तो, इसीलिए बस मौन हो गए।

सब आपस में यारी रक्खें,
बातें ना अख़बारी रक्खें।
जब-तक मंजिल ना पा जाएं,
तब-तक चलना जारी रक्खें।

साथ तुम्हारा ना मिलने से, हम पूरे थे पौन हो गए।
झूठ नही कह सकते हम तो, इसीलिए बस मौन हो गए।

चादर मैली ना हो जाए,
दर-दर फैली ना हो जाए।
सुनने – कहने में शर्मिंदा,
भाषा – शैली ना हो जाए।

कल तक हमें जानते थे सब, आज किंतु हम कौन हो गए?
झूठ नही कह सकते हम तो, इसीलिए बस मौन हो गए।

जीवन की हर हार- जीत से,
कुछ लोगों के वैर- प्रीत से।
विचलित कभी नहीं होना तुम,
पावस, आतप और शीत से।

शहरों की आपा-धापी में, शांत गाँव का भौन हो गए।
झूठ नही कह सकते हम तो, इसीलिए बस मौन हो गए।

अवनीश त्रिवेदी ‘अभय’
ग्राम- मोहरनिया, पोस्ट- जहांसापुर, जिला- सीतापुर- उत्तर प्रदेश, पिन- 261141
मो. 7518768506

 

कोड – & तृतीय

हिंसा-उत्पीड़न जगह-जगह
उर में अति दर्द छलकता है
फिर सोच- विचार की धारा में
अंतस में मौन उभरता है ।
पशुता क्यों जग में फैल रही
शिक्षा का क्यों ना असर पड़ा
सुख- शांति भरे संदेशों का
प्रभाव ना दिखता कोई बड़ा
यह बात बहुत झकझोर रही
उर मैं कुछ हर पल चुभता है
फिर सोच विचार…………..
अंतस में मौन……………..।
महिमामंडन क्यों झूठों का
सच्चाई का दम घुटता है
क्यों दीन- हीन सीधा -सच्चा
इस जग में अक्सर लुटता है
आंखों से अश्रु टपकते हैं
मन में कुछ बहुत कसकता है
फिर सोच विचार ………….
अंतस में मौन ……………..।
जब मन व्याकुल हो जाता है
वह मौन की गोद में जाता है
फिर द्वार सत्य का खुलता है
मन भी शांति पा जाता है
भय- क्रोध दूर होता ‘असीम ‘
आ जाती बड़ी सजगता है
फिर सोच- विचार…………
अंतस में मौन……………..।

डॉ अरविंद श्रीवास्तव ‘असीम’
150, छोटा बाजार , दतिया
(मध्य प्रदेश) 475661
मो. 9425726907

 

 

छठा माह (नवंबर 2021)
विषय – एक चित्र दिया गया था।

कोड – F (प्रथम)

बोथरे से हो गये है आज नश्तर।
झड़ गया अभिमान का सारा पलस्तर।।

थी चरम पर कल तलक इसकी ढिठाई।
खौफ़ की दौलत बहुत इसने कमाई।
सत्य की आवाज को जिंदा दफन कर,
सोच सामंती यहाँ पर खिलखिलाई।।

किन्तु अब यह लग रहा फूटा कनस्तर।
झड़ गया अभिमान का सारा पलस्तर।।1

तोड़ रिश्ते जा बसे इसके शहर में।
फैल सन्नाटा गया इस शोकहर में।
भव्यता की शेष कुछ वाचिक कथाएँ,
आज भी जीवित मिली अंतिम पहर में।।

मिट गये सारे विलासी नर्म अस्तर।
झड़ गया अभिमान का सारा पलस्तर।।2

लग रही अब यह हवेली भूतखाना।
तानता है व्यंग्य नित इस पर जमाना।
वृद्ध तन में लड़खड़ाती शेष साँसें,
मौत के दर आ खड़ी लेकर बहाना।।

नींव में गलने लगे निष्प्राण प्रस्तर।
झड़ गया अभिमान का सारा पलस्तर।।3

भीमराव ‘जीवन’ बैतूल
शिवमंदिर के सामने, फेक्चर हास्पिटल रोड गौठाना, बैतूल
पोस्ट – बैतूल (460001),मध्यप्रदेश
मो. 7415363574

 

 

कोड – E (द्वितीय)

ठहरो…

ठहरो, आओ रुक कर देखो

ये मूर्तिमान वीराने हैं
वैभव के लुप्त खजाने हैं ।
ठहरो, आओ रुक कर देखो

इतिहास यहां पर सोया है
हिलकी भर भर के रोया है
हम ढूंढ रहे हैं जिसे वही
इन वीरानो में खोया है ।
बस यहीं मिलेगा वह जिसके
हम आप सभी दीवाने हैं ।
ठहरो आओ रुक कर देखो

थे मिले यहीं पर महल किले
वे स्तूप चैत्य पहिले पहिले
एलोरा और अजंता के
संस्कृति के ऊंचे शिखर मिले ।
क्यों खंडहरों में बदल गए
दुनिया को तथ्य बताने हैं ।
ठहरो आओ रुक कर देखो

क्यों लिखा न लिखने वालों ने
विसराया क्यों आख्यानों ने
क्यों नहीं बताया मौर्यों का
सम्राट अशोक पुराणों ने ।
मिट गए खून के छींटे क्यों
आंसू के घूंट दिखाने हैं ।
ठहरो आओ रुक कर देखो

शहनाई यहां बजी होंगी
दीवारें यही सजी होंगी
कोई फिर अघट घटा होगा
यों ही तो नहीं तजी होंगी ।
इनकी भी पीर सुनें जानें
इनके ये घाव पुराने हैं ।
ठहरो आओ झुक कर देखो

ये मूर्तिमान वीराने हैं
वैभव के लुप्त खजाने हैं
ठहरो आओ रुक कर देखो ।

डॉ जे पी बघेल, C/o डॉ परितोष बघेल
डी/103, मंडपेश्वर कृपा, एसवीपी रोड, बोरीवली (पश्चिम), मुंबई -400103
फोन – 9869078485
022 28954957

 

कोड – G (तृतीय)

परिणति आलय की कृतियों पर, पतझड ने डेरा डाला।
गेह कोष ने विस्मृतियों के,सावन धन को है पाला।

श्रीमती रचना उनियाल
मो. 919986926745

 

सप्तम माह (दिसंबर -2021)
विषय – “मौसम”
नोट:- प्राप्त प्रविष्टियों में से कोई भी गीत प्रथम, द्वितीय या तृतीय स्थान के योग्य नहीं चुना गया।

 

अष्टम माह (जनवरी 2022)
विषय – खुशबू

 

प्रथम स्थान
कोड संख्या – 7

ऋतुपति करे दिव्य आलिंगन , वन-उपवन आनंदित है ।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं ,
और समीर सुगंधित है ।।

जीर्ण पर्ण तज डाल प्रतीक्षित , नव किसलय की आस जगी ।
आरोहित अति तीव्र वल्लरी , प्रिय तरुवर के कंठ लगी ।
पावस करने लगा गमन अब , पंक मुक्त हो हँसी धरा ।
चली बयारें शुभ वासंती , शीत दिखे अब डरा-डरा ।
आम्र-मंजरी महकी-महकी , कोकिल मन आह्लादित है ।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं ,
और समीर सुगंधित है ।।

आया है ऋतुराज सुहावन , अभिनंदन में पुष्प खिले ।
वन-उपवन में यौवन छाया , मधुप सुमन के गले मिले ।
पीत चुनरिया ओढ़ी वसुधा , सेमल सरसों खूब सजे ।
प्रेमापूरित हुई दिशाएँ , शहनाई सी हृदय बजे ।
सरस यौवना रूप बनाई , कण-कण सृष्टि अलंकृत है ।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं ,
और समीर सुगंधित है ।।

रंग -बिरंगे फूल सुशोभित , प्रेमिल भाव हृदय भरते ।
पुष्प बाण से सज्जित रतिपति , घायल प्रेमी मन करते ।
रक्तिम किंशुक दहके कानन , विरह अगन को दीप्त करे ।
पिय दर्शन की प्यासी अँखियाँ , पीड़ा इनकी कौन हरे ।
ऋतु वसंत आया मन हरने , सबका हृदय प्रफुल्लित है ।
वृंत-वृंत पर फूल खिले हैं ,
और समीर सुगंधित है ।।

श्रीमती इंद्राणी साहू
भारतीय स्टेट बैंक के पीछे
सुभाष वार्ड – भाटापारा
जिला -बलौदाबाजार-भाटापारा (छ. ग.), पिन 493 118
मो. 8251853898

 

द्वितीय स्थान
कोड संख्या – 3

अभिनव संस्कृति और पुरातन,वर्तमान में लायें हम |
सत्कर्मों की गंध लुटाकर,खुद मंहकें महकायें हम ||
अलग अलग मत धर्म पुष्प हैं, अलग अलग हमजोली हैं,
सोच नीति समभाव सभ्यता, विबिध कला रंगोली है,
पिरो पिरो कर प्रेम डोर में,मानवधर्म सजायें हम ||
बीज बीज को करे अंकुरित, पौध बने बढता जाये ,
पौधे से वह कली कली से,फूल बने जग महकाये,
प्रौढ़ अनगिनत शाखाओं से,फिर पहचान दिलायें हम ||
अपने अपने निहित कर्म में,संसृति सारी व्यस्त दिखे,
तितली बनकर उडे़ कल्पना,फूल फूल पर मस्त दिखे ,
खुशबू से अम्बरतल मंहके,दुख दुर्गंध मिटायें हम ||
नयी सोच हो नयी सभ्यता, नये नये आयाम गढे,
नित नूतन विज्ञान प्रगति हो,जैसे सुबहो शाम बढे,
दुनियाँ का आश्चर्य अचानक , ऐसा देश सजायें हम ||
यहीं स्वर्ग हो यहीं नर्क हो, बिधि काहो वर्ताव यहाँ,
कायर व्यसनी, व्यभिचारी या कोई नहीं बनाव यहाँ,
संबिधान की विबिध दृष्टि से, ग्राम स्वराज बनायें हम ||
शिक्षाऔरसुरक्षा सबकी,जटिल नहीं आसान दिखे,
मिटे महामारी भी जड़ से ऐसा हिन्दुस्तान दिखे
अंतर्मन के परिवर्तन से, भृष्टाचार मिटायें हम ||
हम अपनी भाषा में रच दें,लोकतंत्र की परिभाषा
जिसमें निहित सुरक्षा सबकी,जैसी जिसकी अभिलाषा,
कल्पवृक्ष सा दिखे सनातन ,भारत स्वर्ग बनायें हम ||

देवनारायण शर्मा
बाह, आगरा ( उ प्र)
मो. 7505679075

 

तृतीय स्थान
कोड संख्या – 8

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा,
गंध से अनुबंध करके फूल ने फिर फिर पुकारा,

आपकी अनुमति रही तो खिल सकूँगा मैं यहाँ,
जिंदगी छोटी बहुत है जिंदगी है फिर कहाँ,
दर्द सबके बाँट लूँगा मैं मधुर मुस्कान दे,
गंध मेरी साथ होगी तू चलेगा जब जहाँ,
प्रीत मुझको हो गई है, इस धरा,इस गाँव से,
जब उषा के साथ मैंने आँख खोली जग निहारा ,

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा..

खुशबुओं के लोभ ने है खो दिया परिवार को,
मैं बचूँ या मौत हो, जो चाह हो तलवार को,
मैं खुशी को बाँट कर भी आज तक गुमनाम हूँ,
गिड़गिड़ाकर मांगता हूँ सांस के अधिकार को,
आज तक सोचा नहीं कर्म मैं अपने गिनाऊँ,
गर्दिशों में ही रहा पर भाग्य का अपने सितारा,

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा..

आँधियों की धूल फांकी, धूप में तपता रहा,
कंटकों के साथ भी निर्लिप्त मैं हँसता रहा,
मैं खुशी के साथ हूँ और दुखों के साथ भी,
स्वाद जोवन के अनेकों मैं सदा चखता रहा,
सत्य है मन भर खिला मैं और खिलकर मैं गिरा,
किंतु जब तक भी रहा हूँ मैं रहा सब का दुलारा,

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा..

गर्व है मुझको कि जीवन अल्पकालिक है मगर,
है सुखद सबका प्रिय है यह मेरा लघु सा सफर,
धन्य हूँ जब तक जिया मैंने सजाया बाग को,
और भी कुछ कर सकूँ गर, फिर चलूँ अपने नगर,
जगमगा दूँ जग को मैं अपने सुवाषित अंश से,
पाँखुरी बोली पवन से जब पवन ने जग बुहारा,

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा..

कर प्रलोभित दृष्टि को मैंने कहा मुझसे बनो,
ताप, अंधड़ ,बारिशें, जो भी मिले सबको सहो,
एक दिन इस बाग को भी फक्र होगा आप पर,
एक दिन का ही रहे जीवन मगर सबके रहो,
यदि मुझे वरदान कोई मिल सके तो मैं कहूँ,
चाह मेरी है सजाऊँ बाग को आकर दुबारा,

मत बटोही तोड़ना, करना न हमको बेसहारा..

संतोष कुमार शर्मा
MIG – 1069/4R आवास विकास कॉलोनी बोदला,(आगरा ) – 282007
मो. 7007615587

 

नवम माह (फरवरी -2022)
विषय – बसंत

सभी प्रविष्टियों का सम्यक विश्लेषण करने के बाद मूल्यांकन समिति ने कोई भी गीत प्रथम, द्वितीय या तृतीय स्थान प्रदान करने हेतु योग्य नहीं पाया है सिर्फ
कोड़ संख्या 10 को सांत्वना पुरस्कार हेतु चुना गया।

सांत्वना पुरस्कार
कोड़ संख्या – 10

सुषमा श्रृंगार सपन,सुमनों के कंत का ।
स्वागत है ऋतुओं के, राजा वसंत का ।

पाँखें पसार तितली, खुशियाँ लुटाये ।
अलसी ने माथे पर, कलशी सजाये ।
उत्सव मनायें सखी,ठिठुरन के अंत का ।
स्वागत है ऋतुओं के, राजा वसंत का ।

बौराये आमों पर, कोकिल कुहुकते ।
विरह जन्य पावक में, टेसू दहकते ।
मधुवन के मधुरस की,तृष्णा अनंत का ।
स्वागत है ऋतुओं के, राजा वसंत का ।

मृदुल – मंद गंध लिए, बहे पुरवाई ।
कलियों के तन-मन में, बजे शहनाई ।
भ्रमरों के गुंजन से, गुंजित दिगन्त का ।
स्वागत है ऋतुओं के , राजा वसंत का ।

सरसों ने ओढ़ी है, पीली चुनरिया ।
अँगड़ाई लेती है, बाली उमरिया ।
अभिसारी गीतों के, नेहों के छंद का ।
स्वागत है ऋतुओं के, राजा वसंत का ।

प्रेम नाथ मिश्र
259, मुफ्ती पुर,पोस्ट- बख्शी पुर
जनपद- गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
मो. 9670919777

 

दसम माह (मार्च -2022)
विषय – “फागुन”

नोट:- प्राप्त प्रविष्टियों में से कोई भी गीत प्रथम, द्वितीय या तृतीय स्थान के योग्य नहीं चुना गया।

पत्रांक:- अ16/क21/295
दिनांक- 01/03/2022

 

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